कबूतर (रॉक पिजन), जिसे वैज्ञानिक भाषा में कोलम्बा लिविआ के नाम से जाना जाता है, पक्षी की ऐसी प्रजाति है जो सहारा मरुस्थल व ध्रुवो के अलावा पूरे विश्व में पाई जाती है। यूँ तो इंसानो का कबूतरों के साथ संबंध काफी पुराना है जहां इसे सबसे समझदार पक्षियों में से एक माना गया तथा संदेशो के आदान प्रदान के लिए उपयोग में लिया गया। परन्तु पिछले कुछ दशकों में कबूतरों की अनियंत्रित बढ़ती आबादी एक चिंता का विषय है। इससे न सिर्फ अन्य छोटे पक्षियों की संख्या पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है तथा स्थानीय जैव विविधता में भारी कमी आई है बल्कि कबूतर कई प्रकार के वायरस का भी संवहन करते है जो अस्थमा व साँस की बीमारियों से प्रभावित लोगो, बच्चो व बुजर्गो के स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक है।
जंगलो में कबूतर चट्टानों, दरारों तथा विभिन्न वृक्षों पर अपना घोंसला बनाते है जो कि मौसम तथा अन्य भक्षी जानवरो के चलते नियंत्रण में रहता है। जबकि शहरों की ऊँची इमारतों, पुराने भवनों तथा पर्यटनो स्मारकों में बनाये गए घोंसलों में ये वर्ष भर अंडे दे पाते है तथा दाने की पर्याप्त मात्रा के चलते इनकी जनसँख्या त्वरित रूप से बढ़ती है। धार्मिक रुझानों के चलते लोगो की दाना डालने की प्रवृति से इन्हे वर्ष भर समुचित मात्रा में भोजन मिलता है। साथ ही झुण्ड में रहने के कारण ये अन्य भक्षी पक्षियों व जानवरो से अपनी सुरक्षा आसानी से कर पाते है तथा छोटे पक्षिओ जैसे गोरैया, तोते व अन्य के भोजन भी चट कर जाते हैं। जिससे इन अन्य पक्षिओ की संख्या में बेहद कमी आई है, कुछ वर्षो पहले तक सुनाई देने वाली चिडियो की चहचहाहट आज कम ही सुनने को मिलती है। जबकि कबूतरों को की बढ़ी तादाद भवनों, पुराने किलो, स्मारकों में आसानी से देखी जा सकती है। चुग्गा डालने के सभी निर्धारित स्थानों पर मुख्य रूप से सिर्फ कबूतर ही देखे जाते है न कि अन्य पक्षी।
छोटी चिड़िया जो कीटो का भक्षण करके कृषि में सहायक होती थी आज विलुप्त प्राय है तथा कबूतरों के बचे दाने से आकर्षित होकर चूहों की संख्या में वृद्धि भी कृषि के लिए हानिकारक है। इस प्रकार विभिन्न प्रजातियों का यह संतुलन आज कबूतरों की तीव्र जनसँख्या वृद्धि के चलते गड़बड़ाया हुआ है।

एक मादा कबूतर वर्ष भर में 48 बच्चो को जन्म दे सकती है तथा इनका जीवनकाल लगभग 20 से 25 वर्ष होता है। औसतन एक कबूतर एक वर्ष में 12 किलोग्राम बीट उत्सर्जित करता है जो की अत्यधिक अम्लीय तथा जहरीली होती है। सूखने के बाद यह हवा में धूल के साथ मिलकर आसानी से प्रसारित होती है। मुख्यतया यह शरीर में एक्यूट हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस नामक स्थिति का निर्माण करती है जो गंभीर मामलो में जानलेवा तक साबित हो सकती है। इस बीमारी के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होना इसे अत्यधिक दुष्प्रभावी बनाती है, यहाँ तक की चिकित्सको में भी इसके बारे में बहुत अधिक जागरूकता नहीं है तथा सीटी स्कैन के अतिरिक्त अन्य सामान्य जांचो से इसका पता लगाना संभव नहीं है। कबूतरों के निकट रहने वाले, नियमित दाना डालने वाले लोगो में यह काफी खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है तथा तेजी से फ़ैल कर फेफड़ो को नुकसान पहुंचाता है। कबूतर न सिर्फ इंसानो में बल्कि अन्य पक्षिओ तथा जानवरो में भी इसका संचरण कर सकते हैं।





इनकी अम्लीय बीट ऐतिहासिक भवनों तथा स्मारकों को नुकसान पहुँचाती है तथा उनके मूल सौंदर्य, पत्थरो व रंग पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। जलाशयों के निकट इनकी उपस्थिति, पंखो से गंदगी, बीट निष्कासन छोटी मछलियों व अन्य जलीय जीवो के लिए जहरीली साबित होती है। कबूतरों के विशाल झुण्ड न सिर्फ ऐतिहासिक स्मारको को कुरूप बना रहे है बल्कि जानवर जैसे कुत्ते, बिल्लियाँ इनके शिकार के लालच में कई बार पानी में गिरकर अपनी जान से हाथ धो बैठते है। पुलों के नीचे व चौराहो पर रहने वाले कबूतरों के झुंडो का अचानक से सड़क से गुजरना दुर्घटना का कारण भी बनता है। राजस्थान के जयपुर स्थित अल्बर्ट हॉल, अलवर स्थित पौराणिक त्रिपोलिया मंदिर, बाला किला, होप सर्कस तथा देशभर के असंख्य ऐसे ही विरासत से परिपूर्ण धरोहर आज कबूतरों की बढ़ती आबादी के कारण जर्जर हालत में रहने को मजबूर है।




वैश्विक स्तर पर भी इस परेशानी से बचने के लिए कई उपाय अपनाये गए है। ऑस्ट्रिया के वियना में कुछ वर्षो पहले कबूतरों को दाना डालने पर 36 यूरो का जुर्माना निर्धारित किया गया है। स्पेन के कई शहरों में ओविस्टोप नामक ड्रग का प्रयोग इनके दाने में मिलाकर किया जाता है जो एक प्रकार का गर्भ निरोधक है। लन्दन के मशहूर ट्राफलगर स्क्वायर पर कबूतरों को दाना डालने पर 2001 से पूर्णतया प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इसी प्रकार इटली के वेनिस शहर में सेंट मार्क स्क्वायर पर दाना बेचने वालो पर कठोर जुर्माने का नियम 2008 में लाया गया।


भारत में भी इस प्रकार के नियमो की सख्त आवश्यकता है ताकि समय रहते इनकी अनियंत्रित आबादी पर काबू पाया जा सके तथा अन्य पक्षियों की संख्या में आ रही भारी गिरावट को रोककर जैव विविधता का संतुलन पुनः स्थापित किया जा सके।